वांछित मन्त्र चुनें

इ॒हैवाग्ने॒ऽ अधि॑ धारया र॒यिं मा त्वा॒ निक्र॑न् पूर्व॒चितो॑ निका॒रिणः॑। क्ष॒त्रम॑ग्ने सुयम॑मस्तु॒ तुभ्य॑मुपस॒त्ता व॑र्द्धतां ते॒ऽअनि॑ष्टृतः ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒ह। ए॒व। अ॒ग्ने॒। अधि॑। धा॒र॒य॒। र॒यिम्। मा। त्वा॒। नि। क्र॒न्। पू॒र्व॒चित॒ इति॑ पूर्व॒ऽचितः॑। नि॒का॒रिण॒ इति॑ निऽका॒रिणः॑ ॥ क्ष॒त्रम्। अ॒ग्ने॒। सु॒यम॒मिति॑ सु॒ऽयम॑म्। अ॒स्तु॒। तुभ्य॑म्। उ॒प॒स॒त्तेत्यु॑पऽस॒त्ता। व॒र्द्ध॒ता॒म्। ते॒। अनि॑ष्टृतः। अनि॑स्तृत॒ इत्यनि॑ऽस्तृतः ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजधर्म विषय अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) बिजुली के समान वर्त्तमान विद्वन् ! आप (इह) इस संसार में (रयिम्) लक्ष्मी को (धारय) धारण कीजिये (पूर्वचितः) प्रथम प्राप्त किये विज्ञानादि से श्रेष्ठ (निकारिणः) निरन्तर कर्म करने के स्वभाववाले जन (त्वा) आप को (मा, नि, क्रन्) नीच गति को प्राप्त न करें। हे (अग्ने) विनय से शोभायमान सभापते ! (ते) आप का (सुयमम्) सुन्दर नियम जिस से चले, वह (क्षत्रम्) धन वा राज्य (अस्तु) होवे, जिससे (उपसत्ता) समीप बैठते हुए (अनिष्टृतः) हिंसा वा विघ्न को नहीं प्राप्त हो के (एव) ही आप (अधि, वर्द्धताम्) अधिकता से वृद्धि को प्राप्त हूजिये (तुभ्यम्) आप के लिए राज्य वा धन सुखदायी होवे ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप ऐसे उत्तम विनय को धारण कीजिये जिस से प्राचीन वृद्ध जन आप को बड़ा माना करें। राज्य में अच्छे नियमों को प्रवृत्त कीजिये, जिससे आप और आपका राज्य विघ्न से रहित होकर सब ओर से बढ़े और प्रजाजन आप को सर्वोपरि माना करें ॥४ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजधर्मविषयमाह ॥

अन्वय:

(इह) अस्मिन् संसारे (एव) (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान (अधि) उपरिभावे (धारय) अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (रयिम्) श्रियम् (मा) (त्वा) त्वाम् (नि) नीचैः (क्रन्) कुर्युः (पूर्वचितः) पूर्वैः प्राप्तविज्ञानादिभिर्वृद्धाः (निकारिणः) नितरां कर्तुं स्वभावाः (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (अग्ने) विनयप्रकाशित (सुयमम्) सुष्ठु यमा यस्मात् तत् (अस्तु) (तुभ्यम्) (उपसत्ता) उपसीदन् (वर्द्धताम्) (ते) तव (अनिष्टृतः) अनुपहिंसितः ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने त्वमिह रयिं धारय पूर्वचितो निकारिणस्त्वा मा नि क्रन्। हे अग्ने ! ते सुयमं क्षत्रमस्तु येनोपसत्ता सन्ननिष्टृतो भूत्वैव भवान्नधिवर्धताम्। तुभ्यं क्षत्रं सुखदातृ भवतु ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - हे राजन्नेवं विनयं धरेर्येन पूर्ववृद्धा जनास्त्वां बहु मन्येरन्। राज्ये सुनियमान् प्रवर्त्तय येन स्वयं स्वराज्यं च विघ्नविरहं भूत्वा सर्वतो वर्द्धेत भवन्तं सर्वोपरि प्रजा मन्येत च ॥४ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू नम्र बन, ज्यामुळे वृद्ध लोक तुला थोर समजतील. राज्यात उत्तम नियमांचे पालन झाल्यास राज्य निष्कंटक होऊन राज्याची भरभराट होईल व प्रजाही तुला सर्व श्रेष्ठ मानील.